रविवार, 8 जनवरी 2017

भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने एकादशी व्रत के लिए इस प्रकार कहा:

प्रभु बले, 'भक्ति-अंगे, एकादशी-मान-भंगे, सर्वनाश उपस्थित हय ।
प्रसाद-पूजन करि', परदिने पाइले तरि, तिथि परदिने ताहि रय॥

श्रीहरिवासर-दिने, कृष्णनामरसपाने, तृप्त हय वैष्णव सुजन ।
अन्य रस नाहि लय, अन्य कथा नाहि कय, सर्वभोग करये वर्जन॥
प्रसाद भोजन नित्य, शुद्ध वैष्णवेर कृत्य, अप्रसाद न करे भक्षण।
शुद्धा एकादशी यबे, निराहार थाके तबे, पारणेते प्रसाद भोजन ॥

अनुकल्पस्थानमात्र, निरन्न प्रसादपात्र, वैष्णवके जानिह निश्चित।
अवैष्णव जन या'रा, प्रसाद-छलेते ता'रा, भोगे हय दिवानिशि रत॥

पापपुरुषेर संगे, अन्नहार करे रंगे, नाहि माने हरिवासर-व्रत।
भक्ति-अंग सदाचार, भक्तिर सम्मान कर, भक्ति-देवी-कृपा-लाभ हवे॥
अवैष्णवसंग छाड़, एकादशीव्रत धर, नामव्रते एकादशी तवे।
प्रसादसेवन आर श्रीहरिवासरे, विरोध ना करे कभु बुझह अन्तरे॥

एक अंग माने, आर अन्य अंगे द्वेष, ये करे निर्बोध सेई, जानह विशेष ।
ये अंगेरे येई देशकालविधिव्रत, ताहाते एकान्तभाव हओ भक्तिरत॥
सर्व अंगेरे अधिपति व्रजेन्द्रनन्दन, याह तेहँ तुष्ट ताहा करह पालन।
'एकादशी-दिने निद्राहार विसर्जन, अन्य दिने प्रसाद निम्मार्लय सुसेवन॥'

शुनिया वैष्णव सब, आनन्दे गोविन्दरव, दण्डवत् पड़िलेन तवे।
स्वरूपादि रामानन्द, पाइलेन महानन्द, 'ओड़िया' 'गौड़िया' भक्त सबे॥

ओहे भाई! गौरांग आमार प्राणधन ।
अकैतवे भज ताँरे, यावे तवे भवपारे, शीतल हैइवे अनुमन॥

अनुवाद : भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने कहा, 'एकादशी पालन शुद्ध भक्ति का अंग है, उसको न मानने से भक्ति का सर्वनाश हो जायेगा। एकादशी के दिन प्रसाद को प्रणाम करके, उसको अगले दिन पाओ, जब तिथि सम्पूर्ण हो जाये। एकादशी तिथि के दिन वैष्णव लोग केवल मात्र श्रीकृष्ण नाम रस का ही पान करते हुए तृप्त रहते हैं। वे न तो कोई अन्य रस लेते हैं, न ही अन्य कोई बात बोलते हैं। वैष्णव लोग इस दिन सभी प्रकार के भोगों का त्याग करते हैं।'

'शुद्ध वैष्णव तो सदा प्रसाद का ही सेवन करते हैं, अन्य कोई द्रव्य तो वे चखते भी नहीं हैं। एकादशी के दिन तो वैष्णव जन निराहार रहते हैं व अगले दिन पारण करते हुए प्रसाद भोजन करते हैं। एकादशी के दिन वैष्णवजन केवल अनुकल्प  अर्थात् अन्नरहित फलाहार का प्रसाद लेते हैं। जो अवैष्णव हैं वे एकादशी के दिन नाम प्रसाद पर छल से दिन-रात अपना इन्द्रिय तर्पण करते हैं। पापियों के संग अन्नहार करते रहते हैं, व हरिवासर व्रत को अर्थात् एकादशी व्रत को नहीं मानते हैं। भक्ति के सभी अंगों को मानने से, भक्ति का सम्मान करने से भक्ति देवी की कृपा प्राप्त होती है। अतः अवैष्णव का संग छोड़, एकादशी का व्रत पालन करना चाहिए।'
प्रसाद सेवन व हरिवासर आपस में विरोधी नहीं हैं, हमें अन्तर समझना चाहिए। भक्ति के एक अंग को मानता और दूसरे से द्वेष करता हो, उस व्यक्ति को बुद्धिहीन जानो। हरिभक्ति के जो भी अंग हों, उसकी जो भी विधि हो, देश-काल नियमानुसार उसको एकान्त भाव से पालन करते हुए भक्ति मार्ग में अग्रसर हो जाओ। सभी भक्ति-अंगों के अधिपति श्रीव्रजेन्द्रनन्दन हैं, जिससे वे सन्तुष्ट होते हों, वही पालन करो। एकादशी के दिन निद्रा-आहार का वर्जन कर, अन्य दिनों में प्रसाद का निर्मल चित्त से सेवन करना चाहिए।

एकादशी का विधान भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी से सुनकर सभी वैष्णव बड़े प्रसन्न हुए तथा आनन्द से 'गोविन्द-गोविन्द' पुकारने लगे। राय रामानन्द जी, स्वरूप दामोदर जी इत्यादि 'उड़िया' 'गौड़िया' सभी भक्तों को बड़ा आनन्द आया। 

हे भाई ! श्रीगौरांग महाप्रभु हमारे प्राणधन हैं। निष्कपट भाव से उनका भजन करो, वे तुम्हें इस भव-सागर से पार कर देंगे तथा साथ ही साथ तुम्हारे शरीर व मन को भी शीतलता प्रदान करेंगे।

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