सोमवार, 22 मई 2017

जब भगवान जगन्नाथ जी आपके लिये युद्ध लड़ने गये

भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभुजी के भक्त थे, ओड़ीसा के राजा प्रतापरुद्र। उनके समय में उनका राज्य वर्तमान आन्ध्रप्रदेश के राजमहेन्द्री नामक 
स्थान तक फैला हुआ था।

राजा प्रतापरुद्र के पिता श्रीपुरुषोत्तम देव भगवान श्रीजगन्नाथ देवजी के अनन्य-शरण भक्त थे।

जब श्रीपुरुषोत्तम देव के साथ कान्ची नगर की राजकुमारी पद्मावती का विवाह निश्चित हुआ तो कान्ची के राजा वर को मिलने के लिये पुरी आये। वो भगवान जगन्नाथ जी की रथ-यात्रा का दिन था।  राजा पुरुषोत्तम देव सोने के झाड़ू से रथ का रास्ता साफ कर रहे थे। लगभग उसी समय कान्ची के राज वहाँ पर पहुँचे और उन्होंने सारा दृश्य देखा।

ऐसा देख कर कान्चीराज ने सोचा कि वे एक झाड़ूदार चाण्डाल के साथ अपनी कन्या का विवाह नहीं करेंगे। यह विचारकर उन्होंने विवाह की बात तोड़ दी।

कांची के राजा गणेश जी के भक्त थे। उनकी जैसी श्रद्धा गणेशजी में थी, वैसी श्रद्धा भगवान जगन्नाथजी में नहीं थी।

श्रीपुरुषोत्तम देव को जब अश्रद्धा की बात मालूम हुई तो वे क्षुब्ध हो उठे और एक बड़ी सेना लेकर उन्होंने कान्चीराज पर आक्रमण कर दिया। किन्तु वे युद्ध हार गये।

हार से हताश होकर वे भगवान जगन्नाथदेव जी को मिलने गये और उनके शरणागत हो गये। जब हार के कारण की जिज्ञासा की तो भगवान जगन्नाथदेव जी ने उनसे पूछा कि क्या वे युद्ध में जाने से पहले भगवान से आज्ञा लेने आये थे?

अपनी गलती को मानते हुये राजा ने पुनः भगवान जगन्नाथ जी से आज्ञा मांगी। भगवान जगन्नाथजी के द्वारा ये आश्वासन देने पर कि वे युद्ध में राजा की सहायता करेंगे, राजा ने युद्ध कि तैयारी प्रारम्भ कर दी व भगवान जगन्नाथजी को प्रणाम कर, कुछ ही दिनों में कान्ची नगर की ओर कूच 

कर दिया।
जब उनकी सेना पुरी से 12 मील दूर आनन्दपुर गाँव पहुँची तो एक ग्वालिन ने उनका रास्ता रोका। जिज्ञासा करने पर उसने राजा से कहा -' आपकी सेना के दो अश्वरोही सैनिकों ने उससे दूध-दही और लस्सी पी। जब मैंने पैसे मांगे तो उन्होंने मुझे एक अंगूठी दी और कहा कि ये अंगूठी राजा को दे देना और मूल्य ले लेना। ऐसा बोल कर वो दोनों आगे चले गये।'

राजा पुरुषोत्तम देव कुछ चकित हुये व ग्वालिन से अंगूठी दिखाने के लिये कहा। ग्वालिन ने राजा को वो अंगूठी दे दी। अंगूठी देखकर पुरुषोत्त्म देव को समझने में देर नहीं लगी, के वे दोनों सैनिक श्रीजगन्नाथ और श्रीबलराम जी को छोड़ क्र कोई दूसरा नहीं है।

राजा ने गवालिन को उपयुक्त पुरस्कार दिया।

जब राजा कान्ची नगर पहुंचा तो वहाँ सब कुछ पहले ही नष्ट हो चुका था।

युद्ध जय कर, कान्चीराज के मणियों से बने सिंहासन को राजा ने भगवान जगन्नाथदेव जी को अर्पित कर दिया।
कान्चीराज युद्ध में पराजय के बाद अपनी कन्या को स्वयं पुरी लेकर आये एवं रथ यात्रा के समय स्वर्ण के झाड़ू से स्वयं रथ का रास्ता साफ करते हुये उन्होंने अपनी कन्या पुरुषोत्तम देव के हाथों में समर्पण कर दी।

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