रविवार, 13 अगस्त 2017

किसे कहते हैं मायावादी?

भगवान, भगवान का भजन करने वाले तथा भगवान का भजन -- ये तीनों नित्य हैं।

इसी प्रकार भगवान के नित्य स्वरूप, उनके नाम, उनके रूप - गुण - लीला का भी नित्यत्व स्वीकार हुआ है।

मायावादी ज्ञानी-सम्प्रदाय के आचार्यों ने भगवान के नित्य चिन्मयस्वरूप एवं उनके नाम-रूप-गुण लीला आदि के नित्यत्व और चिन्मयता को स्वीकार  नहीं किया है। वे इन सबको मायिक समझते हैं। 'माया' रूपी 'वाद' की अवतारणा करने के कारण उन्हें मायावादी कहा जाता है।

वे इस प्रकार से कहते हैं कि निम्न स्तर के साधकों के हित के लिए ही ब्रह्म के रूप की कल्पना की गयी है। 

उनके विचार में निराकार, निर्विशेष, निःशक्ति ब्रह्म ही चरम तत्त्व है। एक ब्रह्म को छोड़ कर और कुछ भी नहीं है और जीव ही ब्रह्म है। 

मायावादी लोगों का विचार है कि ब्रह्म में लीन होने की अवस्था को प्राप्त करने के लिये ही निम्न-स्तर के व्यक्तियों को भक्ति का पथ स्वीकार करना पड़ता है। चरम अवस्था में भक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है। 

इस प्रकार के विचार पंचम पुरुषार्थ-भगवत्प्रेम की प्राप्ति में बहुत बड़ी बाधा हैं। इसीलिए श्रीमन्मध्वाचार्य, श्रीरामानुजाचार्य, श्रीविष्णुस्वामी व श्रीनिम्बार्काचार्य -- चारो वैष्णव आचार्यों ने श्रीशंकराचार्य जी के विवर्तवाद विचार, अर्थात् मायावाद विचारों का खण्डन किया।

श्रीकृष्ण द्वैपायन वेद्व्यास मुनि जी का शक्ति-परिणामवाद विचार,
वैष्णवों एवं नित्य मंगल चाहने वालों के लिए ग्रहण करने योग्य है। 

महावदान्य श्रीचैतन्य महाप्रभुजी बिना ऊँच-नीच के भेद-भाव के, सभी को उन्नत-उज्जवल रस-मधुर रस के अन्तर्गत श्रीकृष्ण सेवा प्रदान करने के लिए ही धन्य कलियुग में अवतीर्ण हुए,  जो कि किसी युग में नहीं दिया गया। श्रीमन् चैतन्य महाप्रभुजी ने उसी सर्वोत्म प्रेम को बिना योग्यता-अयोग्यता देखे सब को दिया। 

भगवान की प्राप्ति की बाधा-स्वरूप तमाम सांसारिक वासनाओं का नाश कर प्रत्येक जीव के हृदय में भगवत् प्रेम की प्रतिष्ठा के लिए श्रीचैतन्य महाप्रभुजी इच्छा और शक्ति लेकर आविर्भूत हुए।

मायावाद-विचार, भगवत्-प्रेम प्राप्ति में बहुत बड़ी रुकावट है। 

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