सोमवार, 7 अगस्त 2017

जब एक असुर ने श्रीबलराम को उठा लिया।

श्रीमद् भागवतम् के प्रथम स्कन्ध के 18वें अध्याय के अनुसार जब भगवान श्रीकृष्ण और भगवान बलराम जी वृन्दावन में विहार करते थे तब ग्रीष्म काल में भी बसन्त ॠतु सा ही मौसम रहता था। 

एक दिन श्रीकृष्ण-बलराम गोप-बालकों के साथ खेल रहे थे। उस समय प्रलम्ब नामक असुर गोप-बालक का वेश धर कर उनके बीच में ही खेलने लगा। सर्वज्ञ श्रीकृष्ण समझ गये कि ये नया आया गोप एक असुर है। श्रीकृष्ण ने उसके वध का उपाय सोच उसे अपने सखा के रूपे में वरण कर लिया तथा आयु और बल के अनुरूप दल बनाकर खेल करने के लिये गोप-बालकों को दो दलों में बाँट दिया। 
एक दल के नायक बने -- श्रीकृष्ण और एक दल के नायक बने -- श्रीबलराम ।

खेल में ऐसी शर्त रखी गयी कि जो जिससे हारेगा वह उसे अपने कन्धों पर वहन करेगा। दोनों दल लाइन में खड़े हो गये। खेल आरम्भ होने के साथ-साथ श्रीबलराम के दल से श्रीदाम व वृषभ विजयी हुए। श्रीकृष्ण ने श्रीदाम को और श्रीकृष्ण के पक्ष के बालकों में से भद्रसेन ने वृषभ को कन्धे पर चढ़ा कर वहन किया। इस तरफ प्रलम्बासुर ने श्रीबलराम से हारकर उन्हें कन्धे पर बिठा लइया और श्रीकृष्ण की नज़रों से अपने आप को बचाता हुआ उल्टी तरफ तेज़ी से भाग खड़ा हुआ। 

श्रीबलराम असुरे के खराब अभिप्राय को समझ गये और उसके कन्धों पर
अधिक भार देने लगे। बलरामजी को वहन करने में असमर्थ हो जाने पर कपट गोपवेश धारी असुर ने अपना वास्तविक रूप धारण किया। असुर का भयंकर रूप देखकर बलदेवजी ने पहले तो शंका का भाव प्रकाश किया परन्तु बाद में यह स्मरण कर कि दैत्यों के वध के लिये ही उनका अवतार है, इन्द्र ने जैसे वज्रवेग से गिरि पर प्रहार किया था उसी प्रकार से निःशंकित चित्त से अपहरणकारी असुर के मस्त्क पर मुट्ठी से प्रहार किया। 

घूँसे के प्रहार से प्रलम्बासुर का मस्तक फट गया और खून की उलटी करते हुए भूमि पर गिरकर उसने प्राण त्याग दिये। 
श्रीबलराम के इस अलौकिक कार्य को देखकर गोपों तथा देवताओं ने साधुवाद प्रदान करते हुये उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। 

श्रीलभक्ति विनोद ठाकुरजी ने प्रलम्बासुर के वध के तात्पर्य के सम्बन्ध में लिखा है कि स्त्रीलाम्पट्य, लाभ, पूजा-प्रतिष्ठा का प्रतीक है प्रलम्बासुर्। श्रीबलराम जी की कृपा से इन अनर्थों के नाश होने से श्रीकृष्ण सान्निध्य प्राप्त करने की योग्यता आती है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें