मंगलवार, 13 मार्च 2018

राजनीति में भैंस

हमने अगर घर बनाना हो तो हम 'क्वालिफाइड' इंजीनियर को ढूँढते हैं। अगर हम बिमार हो जायें तो इलाज के लिए 'क्वालिफाइड' डाक्टर को ढूँढते हैंं। बीमार होने पर 'क्वालिफाइड' डाक्टर को ढूँढते हैं। बच्चों की पढ़ाई के लिए 'क्वालिफाइड' टीचर ढूँढते हैं, अपना वाहन चलाने के लिये 'क्वालिफाइड' ड्राइवर ढूँढते हैं और विवाह के लिये 'क्वालिफाइड' पार्टनर।

क्या हमने कभी देश के लिये 'क्वालिफाइड' नेताओं के विषय पर विचार किया है? उपरोक्त कोई भी कार्य करने से पहले हम उस व्यक्ति की योग्यता, शिक्षण, अनुभव आदि पर गहराई से खोजबीन करते हैं कि क्या वह किसी प्रामाणिक संस्था अथवा व्यक्ति 'सर्टिफाइड' है या नहीं। क्या यह सिद्धान्त हमारे नेताओं पर लागू नहीं होना चाहिए जिनके हाथों में हम अपना पूरा देश सौंप देते हैं?
सच पूछो तो आधुनिक राजनिति में एक ही नियम है, जिसकी लाठी उसकी भैंस। प्राचीन काल में महाराज अंग के पुत्र हुए वेण। जब ब्राह्मणों के बार-बार समझाने पर भी वेण ने अपनी क्रूरता नहीं छोड़ी तो ब्राह्मणों ने अपनी मंत्रशक्ति से उसे मार दिया और उसके पुत्र पृथु को राजा बनाया। वैदिक राजनिति में निष्पक्षी एवं निःस्वार्थी ब्राह्मण, राजा का मार्गदर्शन करते थे।

आधुनिक राजनिति में राजा से ऊपर कोई नहीं होता। कहने को जनता होती है, परन्तु वह भी निसहाय और मूर्ख है। जो वास्तव में राजनिति के योग्य हैं, 'लाठी' न होने के कारण वे पीछे रह जाते हैं, और जनता के पास चुनाव करने के लिए अच्छे विकल्प होते ही नहीं। लगता है कि जनता अपना नेता चुन रही है, परन्तु वह तो केवल उसी को मत दे सकती है जो लाठी के बल पर 'बैलट पेपर' तक पहुँच चुका है।
कहने को हमारा देश लोकतन्त्र है, परन्तु जनता की स्थिति उस भूखे व्यक्ति के समान है जिसे तीन प्रकार के भोजन में से एक का चुनाव करने की छूट दी जाती है - पहला दो महीने का सड़ा भोजन, दूसरा दुर्गन्ध और कीड़ों से भरा भोजन और तीसरा सूखकर पत्थर बन गया भोजन।

ऐसे स्वार्थी नेताओं को अपना उल्लू सीधा करने से फुर्सत नहीं मिलती तो देश का हित कहाँ से सोचेंगे। उनसे कुछ कहना तो भैंस के आगे बीन बजाना हो जाता है। महाराज युधिष्ठिर के राज्यकाल में उनके दरबार के सामने एक बड़ा घण्टा लगा था और कोई भी नागरिक उसे बजाकर राजा से अपनी शिकायत अथवा अमस्याओं की चर्चा कर सकता था।
श्रीमद् भागवत् के दसवें स्कन्ध के 89वें अध्याय में एक विप्र की कथा आती है जिसके घर पुत्र पैदा होते ही गया।वह विप्र पुत्र के शव को लेकर महाराज उग्रसेन जी राजसभा में आया और राजा को फटकारने लगा -- कपटी, लोभी तथा विप्रों के शत्रु राजा अपने कर्तव्य ठीक से नहीं कर रहा है, और इसलिये मेरे पुत्र की मृत्यु हुई!

लगातार उसके नौ पुत्रों की मृत्यु हुई और हर बार वह राजदरबार में आकर राजा को खरी-खोटी सुनाकर गया। अन्त में यह समाचार अर्जुन तक पहुँचा। उन्होंने प्रतीज्ञा करते हुए कहा - यदि मैं भविष्य में तुम्हारे पुत्रों को नहीं बचा पाया तो जीवित अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा।
कुछ महीने बाद जब अर्जुन को पता चला कि वह विप्र पिता बनने वाला है तो वे तुरन्त गये और अपने बाणों के जाल से प्रसूति गृह को पूरी तरह से ढक लिया। परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। जन्म लेते ही वह भी वहीं चला गया जहाँ उसके बड़े भाई गये थे। विप्र की प्रताड़ना सुनकर अर्जुन ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उस शिशु की खोज की लेकिन वह कहीं नहीं मिला। अन्त में अर्जुन चिता बनाकर उसमें प्रवेश करने के लिए तैयार हो गये।

आगे क्या हुआ इसके लिये आप श्रीमद् भागवतम् पढ़ सकते हैंं, परन्तु कहने का तात्पर्य है कि पहले के राजा शत-प्रतिशत प्रजा के हित में समर्पित रहते। बचपन से ही उन्हें निडर, निःस्वार्थी तथा निष्पक्ष रहने का प्रशिक्षण दिया जाता।
इस्कान के संस्थापकाचार्य श्रील प्रभुपाद उस दिन का सपना देखते थे जब राजनेता सुसंस्कृत वैष्णव होंगे। 22 अगस्त 1975 को भारत की तात्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी से भेंट में श्रील प्रभुपाद द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों में से कुछ थे - सब लोकसभा सदस्य सुसंस्कृत ब्राह्मण हों, सब सरकारी अधिकारियों को प्रतिदिन सुबह-शाम कीर्तन करना चाहिए, एवं श्रीमद् भगवद् गीता की शिक्षाओं का विश्वस्तर पर प्रसार हो।

लेकिन उनके ये प्रस्ताव केवल प्रस्ताव ही रह गये, और स्थिति दिन-प्रतिदिन बद से बदतर हो रही है।

बिना प्रशिक्षित नेताओं के अभाव में यही कहा जायेगा कि अब तो गई भैंस पानी में।

-- श्रीवंशी विहारी दास 

(सम्पादकीय -- भगवद्दर्शन - जून 2014)

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