श्रीकृष्ण नाम का संकीर्तन करते-करते तो जीव के हृदय में श्रीकृष्ण-प्रेम उदय हो
जाता है। ऐसी स्थिति में श्रीकृष्ण के दर्शन की उत्कंठा रूपी अग्नि के द्वारा भक्त
का चित ऐसे द्रवीभूत हो जाता है जैसे कि अग्नि में तपा हुआ सोना। इस स्थिति में वह
भगवान के प्रेम में व भगवान के विरह में कभी रोता है तो कभी हंसता है।
वैस वृजलीला में भगवान
माखन चोरी लीला का अभिनय करते हैं। अपने भक्तों को आनन्द देने के लिये वे प्रेम में,
किसी गोपी के घर में सुबह-सुबह ही घुस जाते हैं। वहाँ कन्हैया अपने सखाओं को बन्दरों
को माखन लुटाते हैं। ऐस में गोपी जब यह देखती है तो वह शोर मचाती है --- पकड़ो! अरे
कोई पकड़ो! यह नन्द का छोरा हमारा माखन चुरा रहा है।
इस प्रकार वह गोपी,
अन्य गोपियों को इकट्ठा कर लेती है। भगवान भयभीत होने का अभिनय करते हैं व बाहर जाने
का मर्ग खोजते हैं। यही नहीं, अपने ठाकुर का, अपने आराध्य देव को डर-डर के छुपते-छुपते
घर से निकलते देख भक्त हँसते हैं। ऐसे ही जब भगवान अदृश्य हो जाते हैं तो वही भक्त
रोने लगता है मानों
श्रीभगवान रूपी महानिधि उसके हाथ से निकल गयी हो।
श्रीभगवान रूपी महानिधि उसके हाथ से निकल गयी हो।
भक्त की वेदना व करुण
पुकार सुनकर भक्तवत्सल भगवान उसको आश्वासन द्ते हुये पुनः वहाँ प्रकट हो जाते हैं।
एक बार फिर भगवान की स्फूर्ति प्राप्त होने पर भक्त आनन्द से झूमने वा गाने लगता है।
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